वाघा बोर्डर पर देशभक्ति का ज्वार – मधु कांकरिया

Published by मधु कांकरिया on   August 14, 2019 in   2019Hindi

 

(वाघा बोर्डर) सीमा पर पहुंचते ही आप, आप नहीं रहते। आपके जींस बदल जाते हैं क्योंकि सीमा पर पहुंचते ही देश आपको पुकारने लगता है, देशप्रेम का समुद्र आपके भीतर हिलोरे लेने लगता है और यदि यह सीमा हिंदुस्तान-पाकिस्तान की सीमा हो तो क्या बात है! देशभक्ति का हाई पॉवर नशा मरियल से मरियल शख्स में भी कुछ लम्हों के लिए ही सही, इतनी ऊर्जा और ओज भर देता है कि वे भगत सिंह, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी और लक्ष्मीबाई की तरह हुंकार भरने लगते हैं।

भारत-पाकिस्तान की सीमाएं कई स्थलों पर मिलती हैं, पर इसका सम्मिलित उत्सव मनाया जाता है वाघा बोर्डर पर। शायद सद्भावना स्थापित करने के उद्देश्य से डेढ़ घंटे का यह उत्सव दोनों देशों में एक साथ और एक ली समय मनाया जाता है। इधर अमृतसर, उधर लाहौर।इधर हमारी सीमाओं का आखिरी छोर, अंतिम शाही दरवाजा और दरवाजे के भीतर हमारा ध्वज। उधर खुलती उनकी सीमा, उतना ही भव्य लोहे का उनका शाही दरवाजा और दरवाजे के भीतर तीन तिहाई गहरे हरे झंडे पर सफेद रंग में चांद तारों से सजा उनका ध्वज। बीच में संकरा सा रास्ता। न उनका, न हमारा। नो मैन्स लैंड, जहां कभी उनके जवान खड़े मिलते तो कभी हमारे जवान।

इधर हमारी दर्शक गॅलरी। एक वीआईपी गैलरी, एक वीवीआईपी गैलरी, तो चार-पांच दर्शक गैलरी। ३५ हजार दर्शकों से खचाखच भरा हमारा वाघा बोर्डर स्टेडियम। देशी-विदेशी सभी सजे-धजे। रंगबिरंगी आकर्षक वर्दी में लकदक बीएसएफ के हमारे जवान, संतरी और अफसर। उधर उनकी दर्शक गैलरी, उनका स्टेडियम, उनके जवान, उनके संतरी, उनके अफसर।

इधर हमारे पेड़, हमारे परिंदे, हमारी हवा। उधर उनके पेड़, उनके परिंदे और उनकी हवा। महान से महान विश्व मानव या विश्व चेतना संपन्न व्यक्ति भी यहां स्वयं को बंटा हुआ पाता है क्योकिं धरती के उस टुकड़े और उन डेढ़ घंटों का सारा जादू इसी बंटवारे में है। सबकी निगाह टिकी है (वाघा बोर्डर) सीमा रेखा से जुड़े दरवाजे की तरफ। बड़ा सा भव्य जालीदार, नक्काशीदार लोहे का दरवाजा। इसकी एक ओर हमारा झंडा। उसी के पीछे उनका दरवाजा।

आयोजन की शुरूआत में सीमा रेखा से जुड़े दोनों दरवाजे खुलते है। खरामा खरामा। नो मैन्स लैंड पर दोनों देशों के जवान खड़े दिखाई देते है। किसी पाकिस्तानी अधिकारी को लाहौर जाना है। सरकारी जीप से उसका सामान उतारा जाता है। उसके साथ आई महिलाएं भी वहीं वीवीआईपी गैलरी में बैठी हैं। भारतीय अधिकारी उनकी विदाई की तैयारी में व्यस्त हैं। इसी शाही दरवाजे से वे लाहौर निकलते हैं। उमंग और उत्साह की तेज लहर एक बार फिर उठती है जब सीमा से जुड़े दरवाजे की विपरीत दिशा से दो छोटी छोटी बच्चियां पूरे दमखम के साथ तिरंगा लेकर दौडत़ी हैं प्रवेशद्वार की तरफ। प्रवेशद्वार और सीमाद्वार के बीच की दूरी लगभग १५० मीटर। सारा आयोजन इसी १५० मीटर के भीतर। हर दर्शक गैलरी की सबसे ऊंची सीढ़ी पर खड़े कई युवक एक साथ तिरंगा फहराते हैं और इसके साथ ही जैसे समुद्र में ज्वार आ जाता है। देशभक्ति का जोश और हिंदुस्तानी होने का गर्व उछाल मारने लगता है। एक ही तरंग में सब बहने लगते हैं। ‘हिंदुस्तान जिंदाबाद’, ‘हिंदुस्तान जिंदाबाद’ के गगनभेदी नारों के साथ राष्ट्र अभिवादन की शुरूआत होती है। बच्चियों के बाद दो नवयुवक तिरंगे को लेकर पूरे दमखम के साथ दौड़ लगाते हैं, जिसके बाद शुरू होता है सामूहिक नृत्य और गाना। सभी गाने देशभक्ति से ओतप्रोत। ‘मेरे देश की धरती सोना उगले’, ‘ये देश है वीर जवानों का’ से लेकर ‘जय हो जय हो’ तक के एक-एक करके ढेर सारे देशप्रेम के गाने।

अब थोड़ा उधर का भी हालचाल। हमारे खुले दरवाजे के पार उनका हरा झंडा भी झूमता-लहराता। हमारी नजर कभी इधर, तो कभी उधर। बीतते लम्हों के साथ हमारा सांस्कृतिक अभिमान और देशभक्ति का नशा इतना गाढ़ा होता जाता कि जब उधर से आवाज आती ‘जीओ जीओ पाकिस्तान’ तो हमारे इधर के दर्शकों के बीच हो-हो की आवाज इतनी जोर से गूंज उठती कि लगता जैसे हमने उनकी आवाज को ही नहीं बल्कि उनके वजूद को भी कुचल डाला है। एक भीषण किस्म का राष्ट्रवाद अब हमारे बीच जन्म ले चुका था। दोनों ओर से जारी वाग्युद्ध में शब्दों की गोलाबारी जारी थी।

धीरे-धीरे उधर की दर्शक गैलरी भी भर रही थी। फर्क सिर्फ इतना कि हमारी दर्शक गैलरी में स्त्री-पुरुष के बीच कोई विभाजन रेखा नहीं थी, लेकिन उनकी दर्शक गैलरी में बुर्के वालियां, सलवार-कमीज वालियां एक तरफ तो पठान सूट और टोपी धारी एक तरफ। माइक से बीएसएफ के जवान की बुलंद आवाज गुंजती है – हिंदुस्तान जिंदाबाद। हम पर हिंदुस्तानी होने का नशा तारी होने लगता है। देशभक्ति रगों में दौडऩे लगती है और तभी देखते है कि लाल छ्‌तरी वाली टोपी पहने बीएसएफ के जवान परेड कर रहे हैं। परेड भी आम परेड जैसी नहीं। पांव को छाती तर उठाकर कडक सलामी देते हमारे जवान। वे सलामी देते तो लगता जैसे फौजी और जादूगर मिल गए हों। उधर से फिर आवाज आनी शुरू हो गई है। इस बार उनके नारों में थोड़ी तब्दीली है। ‘यह न भूलें कि पाकिस्तान हमारा है… अल्लाह हो अकबर’। उनकी आवाज को काटती हमारी गगनचुम्बी आवाज – ‘हिंदुस्तान जिंदाबाद! हिंदुस्तान जिंदाबाद!’ शटल कॉक की तरह हमारी चेतना कभी इधर तो कभी उधर। फिर उधर से आवाज आई – ‘पाकिस्तान! पाकिस्तान!’ इधर की दर्शक गैलरी से कोई चिल्लाया – ‘मुर्दाबाद’। मैंने बरजती निगाह से जब उनकी ओर देखा तो वे मुस्कुराए और कहा, ‘मैडम, हम तो यही कहेंगे।’ उत्साह और उत्तेजना से भरपूर पूरा कार्यक्रम डेढ़ घंटे तक चला। देशभक्ति के इस उत्साह और उन्माद में हम सब अपने अपने हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बंट चुके थे। आयोजन के समापन पर दोनों देशों के झंडे साथ-साथ उतारे गए। करीने से तह किए गए। करीब ३५ हजार लोगों का वह पूरा हुजूम हिंदुस्तानी होने की लय-ताल में थिरक रहा था। झूम रहा था। चिडिय़ों की तरह फड़फड़ाते देशभक्ति के उन उन्मत्त पलों में हम और कुछ नहीं, सिर्फ और सिर्फ हिंदुस्तानी थे और दुनिया में हमारा सिर्फ एक ही दुश्मन था – पाकिस्तान, जिसे हम हर हाल में बर्बाद देखना चाहते थे। बस यही जैसे अंतिम सत्य था जो हमारे भीतर उत्ताल लहर की तरह उफन रहा था। आयोजन के समापन पर इसी भावदशा में हर कोई वहां से निकल रहा था। निकलते-निकलते मैंने देखा, दोनों ओर के बादल मिल रहे थे। परिंदों ने अपनी शाखें बदल ली थीं। आसमान पर छाई सिंदूरी आभा दोनों ओर एक जैसी ही थी। शायद हमारी तरह उनके मस्तिष्क में कोई विभाजन रेखा नहीं थी। वे इस सत्य को आत्मसात कर चुके थे कि दोनों ही देशों की जड़ें जमीन के इतनी करीब है कि एक के उखडऩे पर दूसरा भी साबुत नहीं बच पाएगा।

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मधु कांकरिया