संवारिए पर्यावरण (जीवन)
पर्यावरण हमारे जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। हमारे पुरखों ने उस दौर में भी इसका मोल समझ लिया था। उन्होंने अपनी जीवन शैली इस तरह रखी थी कि उससे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होता था। लेकिन इधर के कुछ सालों में हमने इसे बुरी तरह नष्ट करने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी है।
महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रकृति हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, लेकिन हमारे लालच की नहीं। अब प्रकृति ने खतरे का अलार्म बजा दिया है। हम सोचते हैं कि पर्यावरण को ठीक करने का काम सरकारों का है लेकिन यह बात हमें समझना होगी कि इसके लिए सरकारों और समाज को मिल-जुल कर काम करना पड़ेगा।
दरअसल प्रकृति हजारों सालों से हमें साफ हवा, पानी और अन्न निःस्वार्थ भाव से देती रही है। प्रकृति की इस नेमत का पीढ़ियों से प्राकृतिक नियमों के मुताबिक संयमित इस्तेमाल किया जाता रहा। हजारों सालों से धरती का शृंगार करते हमारे बेशकीमती जंगलों का महज कुछ लकड़ी और जमीन के लालच में बुरी तरह से सफाया हुआ है। परिणाम यह हुआ कि बारिश कम और अनियमित होने लगी। सूखा, बाढ़ और अकाल जैसे हालात बन रहे हैं। इसका सीधा असर हमारी खेती के उत्पादन पर पड़ रहा है। जैव विविधता पर संकट बढ़ गया।
धरती की तपन में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है। २०५० तक तापमान इतना अधिक होने लगेगा कि देश के कुछ हिस्सों में खेती संभव नहीं होगी और खेती लायक जमीनें भी कम बच पाएंगी। बारिश के पानी को सहेजकर नदियों को सदानीरा बनाने वाले पेड़ों के जंगल ही नहीं बचे तो नदियां भी अब सर्दियों के दिनों में ही सूखने लगी। जलीय जीवों की कई प्रजातियां अब लुप्त होने की हद तक पहुंच गई है। हमें कुएं-कुण्डियां और बावड़ियों की अनमोल विरासत मिली थी, इसे हमने इतना उपेक्षित किया कि वे अब कूड़े-कचरे के ढ़ेर में खोकर आखिऱी सांसे लेने लगे है।
पानी आज जीवन के लिये सबसे जरूरी होता जा रहा है। हर साल देश के कई हिस्सों में पानी के लिए कोहराम मचता है। धरती का सीना छलनी कर ट्यूबवेल से पानी इसी तरह उलीचते रहे तो अगले पंद्रह सालों में भूमिगत जलस्तर में पचास फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। हर साल ३‧२ प्रतिशत की दर से जलस्तर गिर रहा है। हमें स्वस्थ रखने वाले प्राकृतिक खाद्य पदार्थ भी अब प्रदूषित होने लगे हैं। खेतों में रासायनिक खादों और जहरीले कीटनाशकों के बढ़ते इस्तेमाल से इस जह़र का कुछ अंश फसलों के जरिए हमारी थाली तक पहुँच रहा है। जिससे कैंसर सहित कई गंभीर बीमारियों का आक्रमण बढ़ता जा रहा है।
कल-कारखानों और वाहनों से निकलने वाले धुएं से कई इलाकों में सांस लेने के लिए साफ हवा भी आसान नहीं हो पा रही है। दिल्ली में बीते कुछ सालों से सर्दियों के दिनों में धुंध छाई रहती है और सांस लेने में मुश्किल आती है। फेफड़ों की बीमारियां बढ़ रही हैं। औद्योगिक तथा परमाणु दुर्घटनाएं भारी तबाही का सबब बन सकती हैं। हानिकारक अल्ट्रा-वॉयलेट तथा अन्य विकिरणों से सुरक्षित रखने वाली ओजोन परत भी अब सुरक्षित नहीं रह गई है, उसमें छेद होने लगे हैं। पॉलीथिन और प्लास्टिक का कचरा लगातार बढ़ रहा है।
हम बहुत छोटे-छोटे उपायों को अपनाकर पर्यावरण को साफ सुथरा बनाने में योगदान कर सकते हैं। सबसे पहला और जरूरी काम है पौधे रोपना। यह बहुत आसान है लेकिन बडाकारगर तरीका है। हर साल बारिश से पहले हमें कुछ पौधे लगाकर बच्चों की तरह देखरेख कर उन्हें बडाकरना चाहिए। जिन गांवों के आसपास खाली जमीनें बंजर पड़ी हैं, वहां के लोग इस पर पेड़ लगाकर जंगल उगा सकते हैं।
ऐसी संरचनाएं तेजी से कम होती जा रही है, जो बारिश के पानी को जमीन में रिसा सके। कुएं-कुण्डियों और तालाबों से सिंचाई की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। धीमी बारिश का पानी धरती में रिसता है और नीचे जाकर भूजल स्तर में बढ़ोतरी करता है। ऐसा हजारों साल से होता आया है, हम इसी पानी को उलीच रहे हैं। तेज बारिश का पानी व्यर्थ बहता हुआ नदी-नालों में चला जाता है और धरती को उसका कोई लाभ नहीं मिलता। इसलिए पानी को आपने गांव-खेत के आसपास ठहराने वाली संरचनाएं विकसित करने की सबसे बड़ी जरूरत है। इन छोटी जल संरचनाओं में कन्टूर ट्रेंच (खंतियां), चेक डेम(नाला बंधान), मेडबंदी, रूफ वाटर हार्वेस्टिंग और परम्परागत जल प्रवाह को व्यवस्थित करने के साथ छोटे तालाब-तलैयाँ भी बनाई जा सकती है।
नई पीढ़ी पर्यावरण साक्षर नहीं है। उनका ज्ञान बहुत थोडाऔर सतही है। उसे जीवन के लिए सबसे जरूरी प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल और परम्पराओं की जानकारी नहीं है। हमें इन मुद्दों पर समझ बढाऩी होगी। हमें प्राकृतिक तौर-तरीकों को समझकर प्रकृति में ही इसका समाधान ढूंढने की कोशिश करना होगी।
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मनीष वैद्य