स्मृतियों का पर्यावरण
आज पर्यावरण को लेकर सम्पूर्ण विश्व चिंतित हैं। यह चिंता हमारी आने वाले पीढ़ियों के जीवन के पर्यावरण को स्वस्थ रखने के लिए जरूरी भी हैं, लेकिन कभी जब उजाड़ हो रही धरती और दुनिया को देखते है तो महसूस होता हैं कि हमारी स्मृतियों का पर्यावरण तो कभी इतना दमघोंटू नहीं था। आज जो भी शख्स अधेड़ उम्र की दहलीज के पार कर खडाहै उसकी स्मृति में प्रत्येक गांव-शहर से थोड़ी दूर में एक घने वन होने के निशान मिलते हैं। हमारी वो स्मृतियां कितनी हरी-भरी थी। हम सबकी स्मृतियों के इस उडाऩ भरते पर्यावरण के पंख किस ने उखाड़े है, हम सब जानते है। बस अपना चेहरा आईने में नहीं देखते हैं।
कभी वो भी दिन रहें कि दूर से जरा-सा दिखने वाले गांव की मौजूदगी का पता ही घने होते जाते पेड़ों के झुण्डों से लगता था और शहर का सपाट वीरानी से। सब जगह सब था। स्वच्छ हवा थी सांस लेने के लिए। छांव थी दो-घड़ी सुस्ताने के लिए। जल भी था ही, जहां जितना होना था। धरती में और धरती की सतह पर। ये। सब था तो‧‧‧‧जिन्दगी तमाम जरूरी-गैर-जरूरी साधनों के अभावों के बावजूद खुशनुमा थी। यानि वो गुजरे हुए दिन कठिन थे और जीवन सरल। अब प्रकृति का दोहन कर दिन तो सरल श्रमविहीन बना लिए लेकिन जीवन बहुत कठिन हो चला है। आज हालात यह है कि भारत सहित दुनिया के कई देशों के जंगलों में लगी।
आग को काबू में लेने का कोई उपाय तरक्की की राह पर हांफते आदमी को नहीं सूझ रहा। अभी मैंने जीवन के सैंतीस बसंत ही तो पार किए है लेकिन मेरी आंखों के समक्ष शुरू हुई मेरी अपनी ही दुनिया की स्मृतियों की हरी टहनियां, लंबे समय तक स्थायी पतझड़ से दूर रहीं। बचपन के दिनों में धरती का जल बहुत उथला था। इतना कि भरे बैसाख में कुएं की सीढ़ियां उतर कई बार हलक तर करते रहें।
गांव के आस-पास इतने-से पेड़ तो थे ही कि गर्मियां इन की शीतल छाँव में आराम से कट जाती। लेकिन अब है कि छाँव ढूँढ़ें से नहीं मिलती।
हमारे बचपन का पर्यावरण आज की तरह पीलिया का शिकार न था। न प्रकृति दमे की मरीजहुई थी। आस- पास पेड़ खू़ब थे। सांझ को गांव का आकाश नीड में लौटते पंछियों से भरा रहता था। पहली बारिश में पेड़ जब अपना पहला स्नान करते तो लगता कि नीले नभ और काली-भूरी धरती के बीच में प्रकृति ने हरी कनातें तान दी हों। गर्मियों की तपती दोपहरें केरियों से नेकर की जेबें भरते गुजर जाती। आषाढ़ के बदरा पके हुए जामुनों की बदौलत जीभ का रंग भी जामुनी कर देते। इस बदरंग होती दुनिया का कोई-सा भी रंग हो वो पेड़-पौधों की अस्थि-मज्जा से ही बना-संवरा है। आज का वक्त तो रंगों के जबरदस्त घालमेल का है। जहां कुछ ही रंगों की माया-काया दिख रही हैं।
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की चौखट पर संभलते हुए अपना पहला-पहला कदम रखने वाले नौनिहालों की स्मृतियों का पर्यावरण कितना सूना, बेरंग एवं विरल होगा इसकी तो कल्पना करना अब इतना मुश्किल भी नहीं। धरती पर चहुं-ओर कॉन्क्रीट के वन हैं। नीले आकाश के मुंह पर धुंए की कालिख पुती है। ओजोन का मुंह सुरसा के मुंह की तरह निरन्तर बढ़ रहा हैं। ये समय रोहिणी नक्षत्र की धूप-सा हैं। जिस की आग में जीवन-परी के सुनहरे-पंखों से सपने झुलस रहे हैं। वे दिन अब अधिक दूर भी नहीं जब आगामी पीढ़ियों के पास स्मृतियां तो होगी ही लेकिन उन स्मृतियों से हमारे पर्यावरण का हरा रंग गायब होगा। मुझे अपनी ही कविता की ये पंक्तियां याद आती हैं- ‘जहां नहीं पानी की / एक बूंद / वहां एक तालाब था कभी / जहां नहीं दिख रही / मुट्ठी भर रेत / वहां बहती थी एक नदी / जहां नहीं बचा है / एक भी पेड़ / वहां जंगल था घना / जहां खड़ी दिख रहीं है / बहुमंजिला इमारत / वहां दबा पडा है एक तालाब / नदी की रेत / जंगल वाला पेड़।’
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ओम नागर