उनके बिना रहेंगे अपूर्ण

Published by Sudha Arora on   July 28, 2018 in   Hindi

हमारे यूनिवर्स में दो स्पेस हैं – एक बाहरी, एक भीतरी। बाहरी स्पेस को हमेशा भीतरी स्पेस से ज्यादा अहमियत दी गई। पुरुष बाहर गया, स्त्री के हिस्से घर की स्पेस आई। पैसा कमाने के लिए बाहर जाने-आने के बीच पुरुष के काम के घंटे निश्चित हुए, लेकिन स्त्री के काम की अवधि कभी तय नहीं हुई। एक स्त्री का काम सुबह जागने के साथ ही शुरू हो जाता है और रात सोने तक चलता है। पुरुष के काम के घंटे तय थे, इसलिए उसका मेहनताना तय था। कमाई के कारण उसका दर्जा भी तय था, लेकिन स्त्री का दर्जा शुरू से ही कमतर रहा।

धीरे-धीरे इन स्थितियों में बदलाव आया। स्त्रियां भी घर से बाहर निकलीं और घर चलाने में अपना योगदान देने लगीं। अब घर की साज-संभाल, खाना बनाना और दूसरे काम-काज के लिए ऐसे तबके की श्रमिक औरतों की जरूरत हुई, जो बहुत पढ़ी-लिखी नहीं थीं। अपनी घर गृहस्थी संभालने के बाद वे दूसरे घरों के घरेलू काम-काज की जिम्मेदारी उठाने लगीं। इन्हें मैं अन्नपूर्णा कहती हूं। हम सबके घर एक-एक अन्नपूर्णा है, जिनके बिना हमारा घर, घर जैसा नहीं लगता।

अब हम अलग-अलग देशों के दो दृश्य देखें

१) एक लड़की / महिला गाड़ी पार्क करती है। आपके घर आती है। घड़ी, मोबाइल सब सहेजकर पर्स में रखती है। अपनी पोशाक पर एप्रन बांधती है और काम शुरू करती है। खाना बनाती है या घर की साफ-सफाई करती है। घड़ी देखकर वह काम समाप्त करती है। घंटे के हिसाब से अपने श्रम की कीमत वसूलती है और अपनी गाड़ी में बैठकर लौट जाती है।

२) एक कामवाली बाई दो बसें बदलकर या पैदल आपके घर आती है। दो-तीन या कभी उससे भी ज्यादा घंटे काम करती है। उसे महीने की तनख्वाह मिलती है, जिसकी दर घंटे के हिसाब से तय नहीं होती। महीने में अगर चार छुट्टियां लीं, तो उसके दो छुट्टियों के पैसे तनख्वाह में से काट लिए जाते हैं। कई घरों में महीने में एक दिन की भी छुट्टी नहीं मिलती। तीस दिन के तीन हजार यानी प्रति दिन सौ रुपये। जितने दिन छुट्टी, उतने सौ रुपये कट जाते हैं।

जाहिर है, पहला दृश्य विदेश का है – अमेरिका हो या यूरोप, वहां एक घंटे के शारीरिक श्रम की कीमत उतनी है, जितनी हमारे देश में पूरे एक महीने की भी नहीं। एक कारण यह कि वहां तबकों में इतना बड़ा फर्क नहीं, क्योंकि सभी साक्षर हैं, दूसरा – वहां शारीरिक श्रम की कीमत मानसिक श्रम से कम नहीं आंकी जाती, क्योंकि इस तरह के काम करने वाली महिलाएं बहुत सहज उपलब्ध भी नहीं। घर की साफ-सफाई या खाना बनाने को हेय नजरिए से नहीं देखा जाता।

कामवाली या अन्नपूर्णा 

भारत में आज अधिकांश मध्यवर्गीय महिलाएं कामकाजी हैं। स्कूल, कॉलेज, बैंक, आई. टी. कॉल सेंटर, फिल्म, मीडिया – हर जगह वे काम कर रही हैं। सुबह से शाम तक – आठ से दस घंटे। इसके लिए उनको उनका मेहनताना भी मिलता है और सप्ताह में एक या दो दिन की छुट्टी भी। बीच-बीच में सिक लीव, कैजुअल लीव आदि भी बिना वेतन से कटौती किए ली जा सकती हैं, पर घर काम करने वाली बाई को सप्ताह में एक दिन की भी राहत नहीं है। उसे खांसी, सर्दी, बुखार, पेट दर्द के लिए भी मोहलत नहीं दी जाती। एक मध्यवर्गीय कामकाजी महिला को अपने बच्चे के स्कूल में पैरेंट्स-टीचर्स मीट के लिए या स्पोट्स-डे में जाना जरूरी हो सकता है, पर घर के काम करने वाली बाई को इन सब की भी रियायत नहीं है। वह हमारे घर की रीढ़ है। वह न आए, तो घर की दुनिया एकाएक ठहर जाती है। सिंक में बर्तनों का ढेर लग जाता है। कपड़े नहीं धुलते। खाना नहीं पकता। और घर की शक्ल-सूरत बिगड़ जाए, तो सारा गुस्सा कामवाली पर उतरता है और उसकी तनख्वाह कट जाती है। कई बार तो उन्हें काम से बर्खास्त करने के बाद उनकी बकाया तनख्वाह भी नहीं दी जाती। आज नहीं, कल आना। कल नहीं, परसों। हारकर वे सब ईश्वर पर छोड़ देती हैं। बे-आसरा व्यक्ति ईश्वर को अपनी निरुपायता की ढाल बना लेता है, क्योंकि उसे वहां रुकना नहीं, आगे चलना है।

सोचना उन्हें नहीं, हमें है। हम जो मध्यवर्ग या उच्च मध्यवर्ग से आते हैं। हम, जो मॉल में बच्चों के साथ हर महीने महंगे टिकट खरीदकर सिनेमा देखने जाते हैं, सिनेमा से पहले खरीददारी भी करते हैं और सिनेमा देखने के बाद अच्छे रेस्तरां में खाना भी खाते हैं। कई बार वेटर को बतौर टिप एक बड़ा नोट भी तश्तरी में रख आते हैं, पर अपने घर की अन्नपूर्णा के साथ हम ऐसा सुलूक क्यों करते हैं – यह जानते हुए भी कि उसकी भी घर गृहस्थी है। झोपड़पट्टियों में ऐसे परिवार खूब देखने को मिल जाएंगे, जहां अकेली औरत अपने घर की पूरी जिम्मेदारी उठा रही है और अपने बच्चों को भी पाल रही है। अक्सर जब मैं ऐसे घर में जाती हूं, जहां की कामवाली बाई बहुत लंबे समय से काम कर रही है, तो उस घर की स्त्री के प्रति मन में सम्मान का भाव जगता है। किसी स्त्री के स्वभाव को उसके घर काम करने वाली अन्नपूर्णा के प्रति व्यवहार से आंका जा सकता है।

सभ्यता के विकास के साथ श्रम का सीधा संबंध रहा है। श्रमशील सभ्यताओं की नींव ही भेदभाव पूर्ण है। घर के चलाने वाले तमाम कामों को श्रम न मानते हुए मजदूरी के दायरे से बाहर कर दिया गया। महिलाएं पुरुष को स्वेच्छा से श्रेष्ठ मानने लगीं। लडाइयां सेनाएं लड़तीं, लेकिन जीत का सेहरा सेनापति या कबीले के सरदार के सिर बंधता। औरतें पुरुषों के अधीन होकर सुरक्षा महसूस करने लगीं। धीरे-धीरे पितृसत्ता के साथ पूंजी का गठजोड़ होता  रहा। आगे चलकर पितृसत्ता ने पहले धर्म और बाद में परंपरा का रूप लिया, जिसे त्याग, सेवा और कर्तव्य के नाम पर संरक्षण मिला। इससे समाज, सत्ता, पूंजी और विचार के लोकतंत्रीकरण का रास्ता जाम हो गया।

अगले कुछ सालों में यह बदलाव आने वाला है कि कामगार और दलित वर्ग पढ़-लिख कर ऊंची नौकरियों पर लगेगा। यह साबित करेगा कि उन्हें शिक्षा और अवसर दिए जाएं, तो वे भी ऐसी डिग्रियां हासिल कर सकते हैं जो किसी खास वर्ग की बपौती नहीं। तबतक हमारा यह दायित्व है कि हम उनके शारीरिक श्रम का सम्मान करें, उनका उचित मेहनताना उन्हें दें और उनकी आने वाली पीढ़ी को उच्च शिक्षा के भरपूर अवसर उपलब्ध करवाएं।

दिहाड़ी मजदूर

आज भी भारत में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है, जिसे दो वक्त की रोटी जुगाड़ने के लिए बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती है। घरों में काम करने वाली स्त्रियों के साथ ऐसे दिहाड़ी मजदूर भी हैं, जो कभी मरम्मत की जाने वाली सड़कों पर पत्थर तोड़ते मिल जाएंगे या किसी नई इमारत के बनने में सैकड़ों की तादाद में वह ऊपर के माले पर ईंट गारे की दीवारें खड़ी करते, उनमें बिजली संचार की तारें लगाते, खिड़कियों में कांच के दरवाजे फिट करते, इमारत बन जाने पर उस पर रंग रोगन करते मिल जाएंगे। हमारे लिए जो ऐसी मजबूत छत खड़ी करते हैं, जहां हम मूसलाधार बारिश की चोट से बच सकें, खुद उनके सिर पर, बरसात भर, कच्ची छत से पानी टपकता रहता है। जिस दिन आपका रिहायशी टावर तैयार होता है, उनका डेरा-डंडा उखड़ कर दूसरी इमारत की नींव खुदने का इंतजार करता है। इनकी जिदगी को बेहतर बनाने के बारे में हमें सोचना है। कुछ पंक्तियां लिखी थी इस पर। आप भी पढ़ें –

दिहाड़ी मजदूर

      वे जो रोज सुबह खड़े मिलते हैं कतार में

      वे जिन्हें रात की रोटी के लिए काम चाहिए हर रोज

      वे जो हमारी आलीशान इमारतों के लिए रखते हैं नीवें!

      वे जिनके खुरदुरे हाथों से

      रखी जाती हैं ईंटें एक पर एक

      और बनती हैं दीवारें

      वे जो बांसों के जाल पे खड़े

      खोलते फेंकते हैं बांस किसी बाजीगर की तरह

      वे जो जान को हर वक्त रखते हैं हथेली पे

      वे जो कमर पर नहीं बांध पाते सेफ्टी बेल्ट

      कि काम में बनी रहे मुस्तैदी

      वे जिनकी दिहाड़ी से काट लेता है दलाल अपना हिस्सा

      वे जो एक इमारत खड़ी होते ही उठा लेते हैं अपना डेरा

      दूसरी इमारत की नींव खोदने के आसपास

      वे जिनके लेटने की जगह भी छिन जाती है

      जब-जब इलाके में खड़ी होती है एक नई इमारत

      और क्षेत्र का होता है विकास!

      आखिरकार वे खुद ही चिने जाते हैं

      ईंट गारे की तरह प्रगति की दीवारों में!