सत्य का राजपथ: ध्यान | संजय पटेल | The Rajpath of Truth: Meditation

Published by संजय पटेल on   October 6, 2021 in   HindiReaders Choice

सत्य का राजपथ: ध्यान

आज मनुष्य के पास बिन बुलाए तनावों की भरमार है। परिवार, कारोबार, समाज और युवा पीढ़ी के साथ संबंधों का ऐसा ताना-बाना है जहां मन के स्तर पर मनुष्य अपने आपको अवसाद से घिरा पा रहा है। कभी किसी शहर में एक दो मनोचिकित्सक हुआ करते थे, अब जैसे उनकी बाढ़ आ गयी है। शरीर के रोगों के निदान के लिये आप किसी काबिल चिकित्सक के पास जाते हैं लेकिन मन के स्तर पर जो हलचल है उसका एकमात्र निदान ध्यान ही है। वैसे ध्यान को एक सामान्य आदमी आध्यात्मिक दृष्टि से देखता है लेकिन मेरा मानना है कि जिन्दगी में अवसाद, तमस, तनाव और क्रोध के लिये एकमात्र औषधि ध्यान है। ध्यान की भावभूमि मौन से प्रारंभ होती है। युवाओं में निजी संबंधों, करियर, कारोबार और अभिभावकों को नसीहतों के लिये विचित्र तरह का अस्वीकार क्रियेट जा रहा है। उनकी सोच यह है कि जो वे कहें उसे मान लिया जाए। जब मन के लिए हुए फैसलों में मनचाही कामयाबी नहीं मिलती तो अवसाद, आत्महत्या, घर से चले जाना या तनाव लेना आम बात है। बच्चों की बात न मानकर माता-पिता के मन में अलग तरह का अवसाद उपज रहा है कि अब हमारी बात तो कोई मानता ही नहीं। नौकरी, व्यापार-कारोबार में भी हालात विपरीत हुए कि डिप्रेशन में आ गए। कोई बीस या तीस बरस पहले हमने भारतीय परिवारों की बुनावट में ऐसी संजीदगी और स्नेह देखा है कि तनाव हुआ नहीं और घर का कोई बुजु़र्ग अगुआई करके मामले को सामान्य बनाने की पहल कर लेता था। अच्छी समझाइशों और मशवरों के लिये तो दादी और नानी नाम की संस्था की अपनी प्रतिष्ठा थी। मोहल्ले और शहर में कुछ परिवारों से ऐसे रिश्ते होते थे जिनकी बात अल्टीमेट होती थी। कोई तायाजी, कोई अम्मा या कोई बड़ी बुआजी ऐसी होती थीं कि जिनकी बात हर एक को माननी होती थी। अब सबकुछ बदल गया है। हम न्यूक्लियर फैमिली में विश्वास करने लगे हैं। हैसियत के बाहर जाकर आसान ईएमआई पर कार और फ्लैट ले लेने और फिर कर्ज न चुका पाने पर हलाकान हो जाने के किस्से अखबार की नियमित सुर्खियों का हिस्सा बनते जा रहे हैं। इंटरटेनमेंट इंडस्‍ट्री में प्रतिस्पर्धा या अवसाद से आत्महत्या राजनीतिक विद्वेष के कारण हत्या और दाम्पत्य जीवन के तनाव के कारण तलाक के समाचार रूटीन हो गई हैं। अब इस तरह की नकारात्मक खबर पढ़कर दहशत या दुख नहीं होता।

हमने अपने आसपास ऐसी दुनिया आबाद कर ली है जिसमें आनंद, आध्यात्मिकता, अपनेपन और धीरज का आलोक निर्वासित होता जा रहा है। तनाव, बेचैनी, अवसाद, तमस, अलगाव, ईर्ष्या और उग्रता से लबरेज हमारा समय उन वैल्यूज को बिसरा रहा जिनसे संतोष, सब्र और स्नेह की भावसृष्टि होती थी। इन सारी मुश्किलों के बाद हमें तलाश होती है एक ऐसे समाधान की जिसका द्वार अंतत ध्यान पर जाकर ही खुलता है। बात को साफ करना जरूरी होगा कि ध्यान कोई चमत्कारिक औषधि नहीं है जिसके लेते ही सुख, समृद्धि या सफलता आपकी दहलीज पर दस्तक देने लग जाए। वस्तुतः ध्यान की ओर तो हमें तब ही आ जाना चाहिये जब हम आनंद में हो, सफल हों, सरलता और सुख का जीवन यापन कर रहे हो। जब ऐसा नहीं हो पाता तब आई हुई विपत्तियों के समाधान के लिए हम ध्यान में जाना चाहते है। इधर देखने में ये भी आया है कि ध्यान जिसे मेडीटेशन कहने में जरा ज्यादा रस लिया जा रहा है; स्टेटस सिंबल का हिस्सा भी बन गया है। किसी आश्रम या स्वामीजी के यहां ध्यान शिविर में जाना बडा ़विशेष कारनामा माना जा रहा है।

ध्यान हमारी जीवन शैली का अटूट हिस्सा होना चाहिए। ध्यान का किसी धर्म और मजहब से कोई लेना देना नहीं होता। उसकी जुदा-जुदा पद्धतियां जरूर हैं लेकिन सभी आदरणीय और आत्मसात करने योग्य। आप ओशो, विपश्यना, सूफी, ब्रह्माकुमारीज, महर्षि महेश योगी या सहज योग किसी की भावधारा का अनुसरण करना चाहें, स्वतंत्र हैं। सभी पद्धतियों में परिस्थितियों के जस के तस स्वीकार, तनाव से मुक्ति, बेसब्री से परे जाकर इत्मीनान को अंगीकार करने का रास्ता प्रशस्त होता दिखाई देता है। यह भी सही है कि ध्यान को मूलतः आध्यात्मिक चिंतन, दर्शन और पद्धति के रूप में ही प्रतिष्ठा मिली है। मेरा अनुभव इससे जरा अलग है। बिला शक ध्यान जिन्दगी में रूहानी जमीन को मुकम्मल कर आपके मन, विचार, कर्म को दिव्यता प्रदान करता है और इसको किसी मार्गदर्शक, गुरु या विशेषज्ञ के सान्निध्य में ही साधा जाना चाहिये।

आप किसी भावधारा या संगठन विशेष से हटकर स्वयं भी ध्यान को उपलब्ध हो सकते हैं। कैसे? अभी बताता हूं। देखिए यदि आपका मन ध्यान करने को प्रवृत्त हुआ है इसका मतलब है कि आपके मानस और मन में ध्यान के लिए एक भीगी हुई जमीन तो है। ध्यान का सीधा और सरल संबंध मौन और निःशब्दता से है। ध्यान रहे! ध्यान किया नहीं जाता, वह आपको उपलब्ध होता है। वह आपकी ओर आता है। आप उधर जाने का मन बनाएं / न बनाएं आपकी मर्जी! खास बात यह है कि ध्यान के लिए निर्देश, टीकाएं, ग्रंथ और किसी अतिरिक्त शारीरिक क्रिया की जरूरत नहीं। कुछ टिप्स हैं जो सरल,सहज और सुदीर्घ ध्यान की ओर जाने के लिये कारगर हैं।

  • अपनी जीवन शैली को अनुशासित कीजिए।

  • कोशिश कीजिये आप सूर्योदय के पूर्व उठ सकें।

  • एक नियत समय और स्थान पर ध्यान के लिये बैठना बेहतर होता है।

  • ध्यान को उपलब्ध होने के लिए आहार को सात्विक बनाएं ।

  • ध्यान कभी भी किया जा सकता है; शाम को भी।

अब नोट कीजिए यह सहज ध्यान पद्धति :

मोबाइल या फोन को अपने से परे कीजिए।

वज्रासन यानी दोनों घुटने मोड़कर या सुखासन यानी आलथी-पालथी लगाकर बैठिए।

शरीर को कड़क मत रखिए लेकिन कोशिश कीजिए आप अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा करके बैठें।

कोई वाद्य संगीत (गायन नहीं) पसंद हो तो उसे धीमे वॉल्यूम पर बजा सकते हैं। कोई मंत्र या ॐ के लगातार रिपीट होने वाला संगीत हो तो वह भी बजा सकते है। पर यह इतना धीमा चले कि वह आपका ध्यानाकर्षण न करे।

श्वास की गति एकदम धीमी चलने दें।

श्वास की आवाजाही पर सतत निगाह रखें। सांस लेते समय और सांस छोड़ते समय नासिका से उसके प्रवाह को चैक करें। सतत देखते रहें उसका आवागमन।

विचारों की आवाजाही हो तो होने दें। अपने मन को राजमार्ग मानें और आने वाले विचारों को वाहन। वे आएंगे और चले जाएंगे। इस पर इरादतन ध्यान देंगे या उसे हटाने का जतन करेंगे तो विचारो का संघर्ष बढ़ जाएगा। बस जो चल रहा है उसे चलने दें।

ध्यान में किसी की बोली हुई कोई कटु बात,व्यवहार या फैसला विचलित करे तो स्वयं अपने आपको अपने अलग कर अपने को सांत्वना दें,सब ठीक हो जाएगा।

किसी पर क्रोध आ रहा हो, कुछ कटु कहने का मन कर रहा हो तो मन को कहें कि मुझे उसकी सोच से फर्क नहीं पड़ता। वह मेरा कहना मान लेगा। या मैं उसे समझा दूंगा। किसी परिजन या परिस्थिति को लेकर चिंता हो तो कहें मैं हर विपरीत के लिए तैयार हूं, सब ठीक हो जाएगा।

ध्यान के शुरूआती अभ्यास में अपने आप से बतियाना आवश्यक है। यह जान लेना होगा कि ध्यान की कोई स्पष्ट विधि नहीं होती। वह विचारों से संघर्ष से मुक्ति का अनुष्ठान है। जैसे जैसे संघर्ष घटेगा, मन की चैतन्यता बढ़ेगी। इसी से ध्यान की सजगता आएगी। भावनाओं से मुक्त, संकल्प से मुक्त और संघर्ष से मुक्ता होना ध्यान को प्राप्त हो जाना है। ध्यान की प्राथमिकी है मौन। जितना समय मौन को दोगे, ध्यान को उपलब्ध होते जाओगे। स्मरण रहे, अबोला होना, मौन नहीं है। वह तो बिना शब्द का वाद-विवाद है। आप जिरह में लगे हुए हैं। अपने विचार को स्थापित करने के लिए। मौन में किसी बात की स्थापना यदि होनी है तो उसे कहेंगे परम आनंद। किसी के कुछ प्रत्यारोप लगाने या आपका मन दुखाने की स्थिति में आ जाना ही ध्यान की पहली सीढ़ी चढ़ जाना है। मैंने आलेख के आरंभ मनुष्य जीवन में घटने वाली विपरीत स्थितियों का हवाला दिया है। वह सब आपके हमारे जीवन में घट रहा है। ध्यान को इसका समाधान न समझा जाए। ध्यान तो मन की दिव्यता का पावन सोपान है। मौन, संगीत, शिथिलता और लेट-गो का भाव हमें विश्राम की झील में स्थिर करते जाते हैं और यहीं ध्यान के कमल का उदय होना सुनिश्चित है। ध्यान की भाव दशा इतनी पवित्र है कि आप ऊंच-नीच, अपना-पराया, धर्म-मजहब और अहंकार-स्वार्थ की सोच से स्वतः बाहर आने लगते हैं। इन स्थितियों की निर्मिति के बाद एक सुखद प्रकाश की सृष्टि मन में होने लगती है।

मैंने विभिन्न ध्यान पद्धतियों में दीक्षित होने के बाद महसूस किया है कि जीवन की आपाधापी में मनुष्य को एक आंतरिक प्रतिध्वनि की आवश्यकता होती है। यदि वह सुखद हो गई तो आप ऊर्जा से भर जाते हैं और जरा-सा विपरीत हो गया तो आप अवसाद या दुःख से भर जाते हैं। ध्यान से सुरभित हो जाने के बाद मन अनुकूल और विपरीत से परे चला जाता है। कोई भी घटनाक्रम सहजता से आता है और चला जाता है। उम्मीद है ध्यान की जो मूलभूत परिभाषा आपने अंतःकरण में पहुंचेगी और आपको सत्य के राजपथ की सैर करवाएगी।

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संजय पटेल