जरूर देखनी चाहिए ये पांच फिल्में
किसी मुल्क का बेहतर सिनेमा उस समाज का दस्तावेज भी होता है। विश्व सिनेमा की कुछ बेहतरीन फिल्में हमें नैतिक और सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध करती हैं। मैं ऐसी पांच फिल्मों का यहां जिक्र करने जा रहा हूं, जिन्होंने मुझे गहरे प्रभावित किया है और जो विश्व सिनेमा की बेहतरीन फिल्में कही जा सकती हैं।
१) शिंडलर्स लिस्ट:पर्दे पर बुना एक महाकाव्य
हिटलर की सनक के चलते फ्रांस और ब्रिटेन ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया और छह साल लंबे चले इस युद्ध में तमाम देशों के साथ ब्रिटेन भी बर्बाद हो गया। इसका फायदा हिंदुस्तान को मिला और हिंदुस्तान आजाद हो गया। हिटलर को केंद्र में रखकर दुनियाभर में कई फिल्में बनाई गई हैं। ज्यादातर में वह किरदार के रूप में मौजूद नहीं है, लेकिन वह कहानियों का हिस्सा है। ऐसी ही एक कहानी ऑस्ट्रेलियन लेखक थॉमस केनेली की है, जिनके उपन्यास ‘शिंडलर्स लिस्ट’ पर अमेरिकन फिल्म मेकर स्टीवन स्पीलबर्ग ने इसी नाम से फिल्म बनाई। ‘शिंडलर्स लिस्ट’ विश्व सिनेमा की एक महानतम फिल्म है। यह फिल्म सेकंड वर्ल्ड वार की उन यातनाओं का दस्तावेज है, जो किसी एक आदमी की सनक से पैदा होती हैं और दुनिया की एक जिंदा कौम ‘यहूदियों’ पर टूट पड़ती है। जो लोग दर्द की इंतिहा से गुजरे, जिन्होंने अपने सामने अपनों को बंदूकों से छलनी होते देखा, जिनके पिताओं, पत्नियों, बच्चों को गैस चेंबर में यातनाएं दी गईं और मार डाला गया। १९९३ में आई फिल्म ‘शिंडलर्स लिस्ट’ को सात श्रेणियों में अकेडमी अवॉर्ड (ऑस्कर अवॉर्ड) मिले। इस फिल्म का नायक ऑस्कर शिंडलर (लियाम नीसन) यूं तो एक जर्मन उद्योगपति है, लेकिन वह हिटलर का दीवाना था। तमाम कोशिशों के बाद वह हिटलर की नाजी पार्टी का मेंबर बनता है और सेकंड वर्ल्ड वॉर की ‘आपदा को अवसर’ बना लेता है।
शिंडलर यहूदियों की एक फैक्ट्री हथियाता है और ऐसे ही तमाम मजदूरों को अपनी फैक्ट्री में काम देता है। पोलैंड में तमाम जगहों पर कैंप बनाए जा रहे हैं, गैस चैंबर बनाए जा रहे हैं। नाजी सेना के एक अफसर अमोन गोएथ की पोस्टिंग शिंडलर के इसी शहर में होती है। हिटलर का दीवाना शिंडलर जब देखता है कि अमोन काम कर रहे मजदूरों को सिर्फ इसिलए मार देता है कि कोई मजदूर काम करते-करते थक गया है और बैठ गया है। इन अंतहीन पीडाओ़ं को देखकर शिंडलर का हिटलर से मोहभंग हो जाता है। वह अपनी फैक्ट्री में उन मजदूरों को भी नौकरी देता है, जिन्हें काम नहीं आता। वह ऐसे बम बनाता है, जो चलते ही नहीं हैं। लोगों को मारने वाले हथियार बनाने की बजाय वह कंगाल होना चुनता है। जो आदमी पैसों के लिए पागल था और अब यहूदियों को बचाने के लिए एक-एक पैसा पानी की तरह बहा देता है। शिंडलर्स लिस्ट पर्दे पर बुना गया एक ऐसा महाकाव्य है।
२) न्यूज ऑफ द वर्ल्ड:युद्ध सिर्फ दर्द के निशान छोड़ते हैं:
‘न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ युद्ध फिल्म नहीं हैं, बल्कि युद्ध के बाद की विभीषिका को दर्शाती है। अमेरिकन फिल्मकार पॉल ग्रीनग्रास की यह फिल्म अमेरिकन उपन्यासकार और कवयित्री पॉलेट जाइल्स (Paulette Jiles) के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है। इस फिल्म में एक भी खूबसूरत दृश्य नहीं है। १२ साल की लड़की के लिए हवस से भरे हुए भेड़िए हैं। ‧‧‧लेकिन इस सबके बीच भी एक उम्मीद है। समय अमेरिकन सिविल वॉर के खत्म हो जाने के ठीक बाद का है। अमेरिका बदहाल हो चुका है। बीमारियां फैली हुई हैं। इस बीच फौज का एक कैप्टन जैफरसन कायले किड (टॉम हैंक्स) रोजगार की तलाश में घर से निकल जाता है। कैप्टन किड गांव-गांव घूमकर लोगों को अखबारों में छपी खबरें सुनाता है। बाकायदा टिकट खरीदकर लोग खबरें सुनने आते हैं।
ऐसे ही एक दिन एक गांव से समाचार सुनाकर लौट रहे कैप्टन किड को जंगल में एक करीब १२ साल की लड़की जोहाना मिलती है। डरी सहमी, आक्रामक लड़की। जो इंडियन टेरिटरी की है। यानी अमेरिका के मूल निवासी, जिनका सभ्य कहे जाने वाले अमेरिकियों से लंबा संघर्ष रहा। कैप्टन किड उस लड़की की जुबान नहीं समझते। वह किओवा जनजाति से है और तनॉन भाषा बोलती है। कैप्टन किड और जोहाना का यह सफर एक इंसानी सफर है, जहां पहले डर है और फिर धीरे-धीरे भरोसा उपजता है। कैप्टन किड उसे उसके गांव-घर पहुंचा देना चाहते हैं। और इसी सफर की एक त्रासद और अंततः एक खूबसूरत कहानी है यह फिल्म।
३) बारां:किशोर मन में प्रेम की कोंपलें
दुनिया की कुछ महान प्रेम कहानियों की बात होती है, तो लतीफ और बारां (रहमत) के खामोश अफसाने की बात भी होती है। एक चौदह साल की लड़की, जिसका कोई मुल्क नहीं है और एक सत्रह साल का लड़का, जो उस लड़की को ही अपना मुल्क और अपना खु़दा समझता है। दुनिया के कुछ महान फिल्मकारों में से एक ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी की २००१ में आई फिल्म ‘बारां’ जरूर देखी जानी चाहिए। इस फिल्म की नायिका का परिवार अफगानिस्तान से ताल्लुक रखता है। उसके पिता नजफ को अपना मुल्क छोड़ना पड़ता है। चूंकि ईरान पड़ोस में है तो वह ईरान पहुंच जाता है।
‘बारां’ एक पर्सियन फिल्म है। यह इस फिल्म की नायिका का नाम भी है, लेकिन उसके इस नाम का जिक्र फिल्म में सिर्फ एक बार आता है। बाकी पूरे समय वह रहमत नाम से जानी जाती है। पर्सियन जुबान में बारिश को भी बारां कहते हैं।
तालिबानियों के आतंक के दौरान अफगानिस्तान से अपने परिवार के साथ तेहरान पहुंची १४ साल की रहमत एक इमारत में काम करती है। वहीं १७ साल का लतीफ भी मजदूरी करता है। हुआ यूं था कि एक रोज एक बूढा ़मजदूर घायल हो जाता है। उसका पैर कट जाता है, तो अगले रोज उसके स्थान पर काम करने उसका १४ साल का बेटा रहमत आता है। ठेकेदार देखता है कि वह कमजोर है और पिता के स्थान पर काम नहीं कर पा रहा है तो उसे लतीफ वाला काम चाय, नाश्ता बनाने, बर्तन धोना बगैरह दे दिया जाता है। लतीफ को मुश्किल काम दे दिया जाता है। वो चिढ़ जाता है। एक सुबह रहमत पाता है कि मजदूरों के कमरे से किसी लड़की के गुनगुनाने की आवाज आ रही है। वह कमरे में झांकता है तो कोई खूबसूरत लड़की अपने बाल बना रही होती है। यानी रहमत के लड़कों के हुलिए के पीछे एक खूबसूरत लड़की रहती है। रहमत को दुनिया की सबसे महान बीमारी ‘मोहब्बत’ हो गई।
ईरान में कोई भी शरणार्थी सरकार द्वारा जारी किए गए पहचान पत्र के बगैर काम नहीं कर सकता। रहमत जहां काम करती है, वहां एक रोज छापा पड़ता है और उसकी नौकरी चली जाती है। इसके बाद लतीफ रहमत को ढूंढता है और हर तरह से चोरी-छिपे इस परिवार की मदद करता है। यह फिल्म मासूम अहसासों की कहानी है। इस पूरी फिल्म में लड़की का एक भी संवाद नहीं है, लेकिन यह महसूस होता रहता है कि मोहब्बत को लफ्जों की जरूरत नहीं है।
४) कैफरनॉम:बच्चों के आंसुओं से बडा बोझ कोई नहीं
हिंसा, आतंकवाद, गरीबी जैसी बदहाली से दुनिया के कई देश पीड़ित हैं। आम आदमी इसमें पिसता है। एक बड़ी आबादी दूसरे मुल्कों में शरणार्थी का जीवन बिताती है। ऐसे ही एक शरणार्थी बच्चे के जीवन पर लेबनीज फिल्मकार नैडिन लैबकी ने एक अरबी फिल्म बनाई है – ‘कैफरनॉम’‧‧‧ यह एक १२ साल के ऐसे बच्चे की कहानी है, जो अपने मां-बाप के खिलाफ मुकदमा दायर कर देता है कि उसे पैदा क्यों किया गया। एक ऐसे बच्चे की कहानी जो अपनी छोटी बहन को लेकर तुर्की भाग जाना चाहता है। उसने सुन रखा है कि तुर्की एक अच्छा देश है और वहां बच्चे पढ़ और खेल सकते हैं। लेकिन हालात उसे अपराधी बना देते हैं। उसे ५ साल कैद की सजा हुई है।
२०१८ में आई इस फिल्म ने अरब दुनिया में तहलका मचा दिया था। इस फिल्म को अरबी सिनेमा की अब तक की सबसे बेहतरीन फिल्मों में शुमार किया जाता है। लैबकी ऐसी पहली अरब महिला फिल्मकार हैं, जिनकी फिल्म को ऑस्कर नॉमिनेशन मिला है। शरणार्थी की भूमिका निभा रहा इस फिल्म का मुख्य किरदार एक १२ साल का बच्चा जेन अल हज है, जो वास्तव में एक शरणार्थी है और जिसका वास्तविक नाम भी जेन अल रफीअ है। इस फिल्म की कहानी तीन बच्चों के आसपास घूमती है। जेन, जेन की छोटी बहन सहर और एक इथोपियन शरणार्थी महिला राहिल उर्फ टिगेस्ट (योरदानोस शिफेरॉ) का एक-डेढ़ साल का बेटा योनास। टिगेस्ट भी एक वास्तविक शरणार्थी महिला है, जिसे जेल से छुडाक़र फिल्म में लिया गया है। यह फिल्म सभी को देखनी चाहिए कि एक १२ साल का बच्चा अपनी जिम्मेदारियों को समझता है और अपनी बहन के जीवन को जब नहीं संवार पाता तो वह एक अंजान बच्चे के जीवन को इसलिए संवारना चाहता है कि उसके मां-बाप ने उसे गैरजिम्मेदारी से पैदा किया।
५) द ग्रेट इंडियन किचन:लैंगिक गैरबराबरी को तर्जनी दिखाती फिल्म
मलयालम फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ देखते हुए आप असहज हो सकते हैं। आपका पुरुषवादी मन आहत हो सकता है। धर्म पुरुष को यह सुविधा देता है कि वह अपनी मर्जी के मुताबिक स्त्रियों का उपभोग कर सके। इस फिल्म की नायिका भी सबकुछ बर्दाश्त करती जा रही थी। अगर वह पीरियड्स को लेकर भारतीय पारंपरिक समाज व्यवस्था का वीभत्स रूप न देखती। जो पति उसे बहुत प्यार करता है, पीरियड्स के दौरान उसके लिए वह अछूत हो गई। किचन और पीरियड्स के बहाने यह फिल्म भारतीय समाज का महाकाव्य है।
पीरियड्स के दौरान स्त्रियां किचन में नहीं जा सकतीं। घर में नहीं रह सकतीं। मलयालम फिल्मकार और पटकथा लेखक जेओ बेबी की फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ के बैकग्राउंड में स्त्रियों का वह आंदोलन है, जिसमें वे सबरीमला मंदिर में प्रवेश की अनुमति चाहती हैं। इस आंदोलन के पीछे सदियों की उस अपवित्रता का दाग मिटाना ही था। गौरतलब है कि भगवान अयप्पा के इस मंदिर में १० साल से लेकर ५० साल तक की औरतों को प्रवेश की अनुमति नहीं थी / है। फिल्म में यह आंदोलन एक या दो सीन में कुछेक सेकंड्स में खत्म हो जाता है, लेकिन कहानी की बुनावट में यह गुंथा हुआ है।
इस फिल्म में किसी पात्र का कोई नाम नहीं है। अगर कोई है तो वह पति है, ससुर है, सास है, मां है, पिता है, भाई है, बहन है, दूर के रिश्ते का देवर है, देवरानी है, फफुआ सास है, अयप्पा हैं और धर्म के ठेकेदार हैं। फिल्म में एक सनातनी परिवार है। परिवार में शिक्षक पति है, रिटायर्ड ससुर है, सास है और नई आई पत्नी है। एक बहुत खूबसूरत, बहुत बडा घर है। खूबसूरत दालान है, जहां आराम कुर्सियां पड़ी रहती हैं। एक हिस्से में गंदा-सा किचन है। घर देखकर आसानी से यह अहसास हो जाता है कि कौन सा हिस्सा पुरुषों का, उनके अहंकार को तुष्ट करने वाला है और कौन सा हिस्सा स्त्रियों का है। यह फिल्म भले २०२१ में रिलीज हुई है, लेकिन इस फिल्म का हरेक सीन हरेक व्यक्ति अपने बचपन से हजारों बार देख चुका है। यह फिल्म हर भारतीय पुरुष को जरूर देखनी चाहिए।
अधिक हिंदी ब्लॉग पढ़ने के लिए, हमारे ब्लॉग अनुभाग पर जाएँ।
फीरोज खान