संगीत इबादत है । कहते हैं संगीत यज्ञ है । ये कहा जा सकता है ।
अल्लाह तेरो नाम, कोई बोले राम राम कोई खुदाए, जैसे सूरज की गरमी से तपते हुए तन को, मन तड़पत हरि दर्शन को आज, इंसाफ का मंदिर है ये भगवान का घर है जैसे गीत बनते रहे तो लगता रहा कि फिल्म संगीत भी इबादत का ही हिस्सा है, वही सुकून मिलता है फिल्म संगीत से जो भजन-कीर्तन, रागी-सूफी गायन में मिलता है । शास्त्रीय गायक और भजन गाने वाले भी फिल्म संगीत की तारीफ करते रहे है, यदा कदा ही सही। सीख समझकर ही आते रहे हैं इस संगीत यज्ञ में आहूति देने वाले संगीतकार या गायक-गायिकाएं, फिल्म संगीत में जो ज्ञान गंगा बह रही थी उसमें तैर पाना और टिक पाना सिक्साड़ या नत्थू खैरों के वश का था भी नहीं । बेसुरों और बेसुरतालियों से बचता रहा फिल्म संगीत । इसलिए समृद्ध भी रहा । उंगलियों पर गिने जा सकने वाले गुलूकार-मौसीकार रहे इसलिए संगीत प्रेमियों के दिल में भी जगह बनाने में सफल होते रहे ।संगीत का कंप्यूटरीकरण होने से पहले तक हिंदी फिल्म संगीत में बमुश्किल पांच सौ संगीतकारों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई और इनमें से बीस फीसदी ही पहचान बना पाए और पांच फीसदी ऐसे रहे जो दिलों में घर कर गए । गायक गायिकाओं में तो ये आकड़े और भी सिकुड़े हुए हैं।मुट्ठी भर नाम छाए रहे और इनमें से भी चार-छह नाम ऐसे उभरे जिनकी आवाज सुने बिना दिन, दिन नहीं लगता । सुबह, सुबह नहीं लगती, शाम, शाम नहीं। रफी-लता-मुकेश-आशा-किशोर-मन्ना डे की आवाजें परिवार के सदस्यों की कुल जमा आवाजों से भी ज्यादा सुनी जाती रहीं।
समय बदला, युग सुधरा लेकिन संगीत बिगड़ने लगा। कंप्यूटरीकृत संगीत ने फिर सारे समीकरण गड़बड़ा दिए। संगीतकारों के जितने नाम पाने लिए वर्षो की 75 वर्षो की तपस्या करनी पड़ी, उतने नाम तो लगभग हर साल निकल के फेंकने लगे हैं गूगल बाबा। कंप्यूटर महाराज कहते हैं कि जब मै संजय दत्त, सलमान खान और अक्षय कुमार को गायकों की फेहरिश्त में जोड़ सकता हूं, लता मंगेशकर को 84 और मन्ना दा को 86 साल की उम्र में गवा सकता हूं, तो कुछ भी कर सकता हूं पर ये तय है कि मेरे रहते और मुझे तो अब रहना ही है, ताकयामत, बल्कि दिन ब दिन और सुधरते जाना है, अब कोई रफी नहीं पैदा होगा, कोई लता स्वर सम्राज्ञी की महापदवी नहीं पा सकेगी। क्योंकि मेरे रहते किसी गायक गायिका की कला उम्र उतनी होगी ही नहीं, जितने बरस लता को लता बनने में लगते हैं और रफी को रफी। मेरे रहते रात को तीन-तीन बजे तक और कभी कभी दो-दो बजे उठकर समुद्री तट पर बैठकर गला तैयार करने वाले सोनू निगम को भी संघर्ष करना पड़ेगा और एकदम ताजे हवा के झोंके की तरह उभरे शान की आवाज को भी जल्दी बासी हो जाना पड़ेगा। अब सुनिधि-श्रेया की हेकड़ी भी नहीं चलेगी, क्योंकि कक्कड़, मक्कड़, और पक्कड़ भी उनके विकल्प के रूप में मै पैदा कर देता हूं। लद गए दूर दर्शन के जमाने अब तो वो स्मार्ट हो गया है। हर साल अभिजीत सावंत से हेमंत बुजवासी तक गायक-गायिकाओं की फौज खड़ी कर रहा है रियालिटी शो के माध्यम से।
तो लता-रफी-किशोर-आशा-मुकेश महफूज हुए। मगर कहीं !!! रीमिक्स नाम के ई-दीमक ने इन्हें भी कहां महफूज रखा है ? अब तो सिर्फ तन झूमता है ऐसे गीतों से, वो भी जनत करने के बाद। ‘शिरडी वाले साई बाबा’ (अमर अकबर एंथनी) का डाउनलोड, रिकॉर्ड तोड़ पाया गया और मजा यह कि वो भी रूहानी फन के मालिका मोहम्मद रफी साहब की गायी मनकबत नहीं थी वो, बल्कि किसी मजारी गायक का रीमिक्स था जो लाखों की तादाद में डाउनलोड किया गया। आज का श्रोता बेचारा रीमिक्स और ऑरिजिनल के बीच का अंतर भी नहीं जान पाता।
अरे ये तो छोडिए । आज की जेनरेशन को ये पूछने में भी शर्म नहीं है कि मोहम्मद रफी क्या करते थे ? राइटर या तो एक्टर थे ना पुराने जमाने के ? जय हो ।
दोष आज की युवा पीढ़ी का नहीं है। जानेंगे कैसे रफी साहब को जब सुनेंगे ही नही उन्हें ! एफएम पर कहां रफी साहब की बुलंद आवाज सुनाई पड़ती है ? टैलेंट हंट के संगीतमय कार्यक्रम में कौन रफी साहब के गीत गाता है ? गाना तो चाहते हैं प्रतिस्पर्धी क्योंकि रफी साहब तो हर गायक के लिए संगीत के भगवान की तरफ हैं पर गाने नहीं दिया जाता उन्हें। कौन रोकता है ? वे जो जज की कुर्सी पर बैठे होते हैं। अरे जब पुराने गीतों को गाने दिया जाएगा तो नए गीत या बाद के गीत गाना चाहेगा भी कौन ? ऐसे में ये जज बने संगीतकार कितने हल्के पड़ जाएंगे कि बने तो हैं जज, पर गाना एक भी ऐसा नहीं बना सके, जिन्हें प्रतिस्पर्धी गा सकें। एकाध किसी रियलिटी शो में पुराने सदाबहार गीत गाये भी गये तो इसलिए कि जज की सीट पर खय्याम साहब या आशा जी या आनंद जी (कल्याणजी आनंदजी) मौजूद थे। फिर ऐसे दिग्गजों को आमंत्रित करना ही बंद कर दिया गया। एफ एम रेडियो चैनलों को खरीद कर नए गीत बजाए जाते हैं शर्त रखी जाती है कि डील उसी चैनल के साथ होगी, जिसमें पुराने नहीं आज के गीत बजेंगे।
पीछे चलें। फिल्म संगीत कभी खाके में बंधा नहीं रहा। शुरूआत हुई क्लासिकल बेस्ड गीतों से। नौशाद साहब ने फिल्म संगीत को हिंदुस्तानी ही रखा। उसमें शास्त्रीयता बरकरार रखी। उनसे पहले गुलाम हैदर, खेमचंद प्रकाश, श्याम सुंदर, अनिल बिस्वास भी यही करते रहे। फिर अन्ना (सी. रामचंद्र) या विनोद इना मिना डिका या लारी लप्पा जैसे पाश्चात्य ढंग में परोसने लगे इसे। शंकर जयकिशन आए तो ऑर्केस्ट्रेशन से लकर प्रेजेंटेशन तब सब हैवी हो गया। लक्ष्मी प्यारे ने भी शंकर जयकिशन के प्रस्तुतिकरण पर ही अपनी मुहर लगाई और कल्याणजी आनंदजी इसके गवाह बने। मदन मोहन ने अपने अंदाज में उसमें गजलमयी एरिस्ट्रोकसी भरकर उसका स्तर ही उठा दिया। उसकी जॉनर ही बदल दी।
बर्मन दा ने फिर इसमें हिंदुस्तानी लोक संगीत की छटा दिखाई तो उनके पुत्र आर. डी. बर्मन ने फिल्म संगीत का साउंड ही बदल दिया। चोला बदल कर जब फिल्म संगीत आरडीयाना या पंचमिया अंदाज में सामने आया तो लगा कि ये नहीं तो कुछ नही। फिर छापमारी शुरू हुई। बप्पी लहरी डिस्को की तरफ ले गए फिल्म, संगीत को तो अनू मलिक या नदीम श्रवण ने इसके तार पड़ोसी मुल्क से जोड़ते हुए उनका सा संगीत परोसा जो अपना सा लगता रहा। रहमान साहब के संगीत ने जरूर विश्व मंच पर हिंदुस्तानी फिल्म संगीत का माथा चौड़ा किया। पर वे अपनी दुनिया में रमे अपनी तरह के अकेले हैं, इसलिए अब कोई एक माई बाप नहीं रहा फिल्म संगत का । जो जैसे चाहे लूट खसोटा रहा है इसे। जब कोई देखने वाला नहीं और किसी के प्रति जवाबदेही नहीं बनती, तो प्रीतम साहब ने वही काम धड़ल्ले से खुल्लम खुल्ला करना शुरू कर दिया जो पहले के संगीतकार कभी कभार और अनू मलिक अक्सर किया करते थे आज के गायक निर्माता निर्देशकों के चक्कर काटते हैं – ‘गाना गवा लो गाना’ ।पूछा जाता है – ओ भइया संगीत भी देते हो ? अब आप पूछ रहे हो चम्पी वाले से कि मालिश भी करते हो !
ये दौर बड़ा फ्रस्ट्रेटिंग है । स्थापित और दिग्गज संगीतकार, पार्श्व गायक-गायिकाएं हाथ मलते बैठे हैं और इनके रहते नए नाम धूम मचा रहे हैं। कारण ? नए संगीतकार टैक्नो सेवी हैं।कंप्यूटर ज्ञान के धनी है। फिल्म मेकर के लिए ये सस्ते और सुविधा गीत भी धक जाते थे। आज फालतू गीतों के बीच कभी कभार कोई अच्छा गीत आ जाता है।
दौर ए तल्खी है कुछ तुम सहो कुछ हम सहे
बेतुके इस आलम में भी खुश तुम रहो खुश हम रहें।
– रविराज प्रणामी
कालनिर्णय (हिंदी) अप्रैल 2017-मे 2017