जल संकट – विकटता की ओर | मनीषा कुलश्रेष्ठ | Water Crisis – Towards More Trouble | Manisha Kulshrestha

Published by मनीषा कुलश्रेष्ठ on   June 1, 2022 in   HindiReaders Choice

जल संकट – विकटता की ओर

जल संकट की समस्या पर महज लोग तभी क्यों बातें करते हैं जब ग्रीष्म ऋतु आ जाती है और पानी की किल्लत शुरु हो जाती है। जल संकट या इतनी सतही समस्या है जितना कि हम सोचते हैं? क्‍या इसके प्रति और अधिक गंभीर रवैया अपनाने की आवश्यकता नहीं?

हम भारतीय शुरू ही से इतने मूढ़ थे कि हमें कुछ संरक्षण वगैरह की बात सिखाने के लिए धर्म और आस्थाओं की आड़ लेनी पड़ी है। उसके चलते हम उलटा नुकसान करने के आदी हैं। मसलन हमसे कहा नदियों की पूजा करनी चाहिए, वे देवियां हैं तो हमने, देवियों पर राख, फूल, भोजन, मृत देह, बलियां सब चढाऩा शुरू कर दीं। हमने अपने शौचालयों के निकास तक उनमें खोल दिए। कारखानों का अपशिष्‍ट, रसायन हमने अपने ही पीने के पानी में घोल लिया।

स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती कहते हैं – ‘कुछ दिनों पूर्व तक माना जाता था कि गंगा मैदानी क्षेत्रों में ही प्रदूषित होती है। परंतु अब देखा जा रहा है कि बद्रिकाश्रम और गंगोत्री आदि उद्गम स्थलों से ही इसमें प्रदूषण प्रारंभ हो जाता है’। क्योंकि वहां से ही आसपास के नगरों का मल-जल नदियों में आ रहा है। ऋषिकेश और हरिद्वार में आकर यह प्रदूषण और भी बढ़ जाता है। हरिद्वार का पवित्र माना जाने वाला गंगाजल आज आचमन के योग्य भी नहीं रह गया है, क्योंकि ऋषिकेश और हरिद्वार के बीच में एक रासायनिक फैक्टरी है, जिसका अवशेष गंगा में गिरता है। प्रयाग के पूर्व ही कन्नौज एवं कानपुर तक गंगा अत्यंत प्रदूषित हो जाती है। दूसरी तरफ हिमालय के यमुनोत्री से निकलने वाली यमुना नदी राजधानी दिल्ली का समस्त मल-जल लेते हुए मथुरा, वृंदावन और आगरा पहुंचती है। यही यमुना प्रयाग में गंगा से जा मिलती है और अपनी सारी गंदगी गंगा की गोद में डाल देती है। जब हरिद्वार में ही गंगा जल आचमन के योग्य नहीं रहा, तो इलाहाबाद और वाराणसी का क्या कहना।

आज तो हम पैसे व शक्ति के चलते गरीबों व गांवों के हिस्से का पानी जलक्रीडाओ़ं में बरबाद कर देंगे लेकिन उसकी भी तो सीमा है फिर ये वॉटरपार्क स्विमिंग पूल ही नहीं खाली टंकियां खाली बर्तन हमें मुंह जरूर चिढाए़ंगे। मानसून? उसके बदलते मिजाज की भनक नहीं पड़ी आपको? हमारी हर छोटी से छोटी गतिविधि का असर मौसम पर पड़ता है।

अन्नादिभवति भूतानि पर्जन्याद् अन्न संभव (भगवद्गीता)।

अन्न से जीव जन्म लेता है जल से ही अन्न उत्पन्न होता है।

हमारे मध्यकालीन कवि रहीम यूं ही तो नहीं लिख गये ‘बिन पानी सब सून’। विश्व जल-संसाधन के अनुसार वर्तमान समय में दुनिया की दो-तिहाई अरब आबादी जल संकट की विकटता से दो चार हो रही है। उनमें भी तीसरी दुनिया के देश ज़्यादा हैं।

इस सदी के दो विकट आसन्न संकट मानव के स्वयं के पैदा किये हुए हैं — गरमाता वायुमण्डल और शुद्ध पानी की कमी। ‘पेट्रोल को लेकर होने वाले युद्ध अब पानी को लेकर होंगे’ यह उक्ति महज व्यंग्य नहीं। एक कड़वा सच है। आगामी वर्गों में हमारा जल उपभोग भयंकर तेजी से बढ़ेगा। और पानी की भयंकर मार पड़ेगी ग्रामीण और अविकसित इलाकों पर इस सबका सीधा-सीधा असर कृषि पर होगा।

जल-संरक्षण का उपाय क्या हो?

मेरे खयाल से सबसे पहले हमें नागरिक जागरूकता की आवश्यकता है। फिर आवश्यकता है भ्रष्ट प्रशासन से जूझने की। शहरों में पानी का अविवेकपूर्ण उपयोग रोकना होगा। सिंचाई के तरीकों में सुधार लाना होगा। रासायनिक औद्योगिक इकाइयों के कचरे से नदियों तालाबों को बचाना होगा। कैसी विडम्बना है कि मानव सभ्यता ने इन्हीं नदियों के किनारे जन्म लिया और शायद मरण भी इन नदियों के साथ-साथ बदा है मानव सभ्यता का।

पहले गांवों, कस्बों और नगरों की सीमा तालाब होते थे, जिनमें बारिश का पानी भर जाता था। इन तालाबों का जल पूरे गांव के पीने, नहाने और पशुओं आदि के काम में आता था। लेकिन स्वार्थी मनुष्य ने तालाबों को पाट कर घर बना लिए। अब जरूरी है कि गांवों, कस्बों और नगरों में छोटे-बड़े तालाब बनाकर वर्षा जल का संरक्षण किया जाए। इसे पेड़-पौधों की सिंचाई के काम में लिया जाए।

जल संरक्षण को लेकर हुए बच्चों और महिलाओं को सचेत करना होगा। नहाने के लिए बाल्टीं का प्रयोग करें। पुरूष दाढ़ी बनाते हुए नल बंद करना न भूलें। बरतन कम गंदे किए जाएं, बाल्टी या टब में बर्तन साफ करवाए, तो जल की बहुत बड़ी हानि रोकी जा सकती है। टॉयलेट-फ्लश टैंक में प्लास्टिक-बॉटल में रेत भरकर रख देने से हर बार एक लीटर जल बच सकता है।

हर घर की छत पर वर्षा जल एकत्रित करने के लिए एक-दो टंकी बनाई जाएं और इन्हें मजबूत जाली या फि‍ल्टर कपड़े से ढ़ंक दिया जाए तो हर घर में जल संरक्षण किया जा सकेगा। घरों, मुहल्लों और सार्वजनिक पार्कों, स्कूलों अस्पतालों, दुकानों, मंदिर आदि में लगी नल की टोंटियां खुली या टूटी रहती हैं, तो अनजाने ही प्रतिदिन हजारों लीटर जल बेकार हो जाता है। ऐसे में दंड का प्रावधान हो।

हम अपने शहर-गांव की नदियों का सफाई अभियान चलाएं। गंगा और यमुना जैसी सदानीरा बड़ी नदियों की नियमित सफाई बेहद जरूरी है। जंगलों का कटान होने से दोहरा नुकसान हो रहा है। पहला यह कि वाष्पीकरण न होने से वर्षा नहीं हो पाती और दूसरे भूमिगत जल सूखता जाता हैं। इसलिए वृक्षारोपण लगातार किया जाना जरूरी है।

विद्यालयों में पर्यावरण की ही तरह जल संरक्षण विषय को अनिवार्य रूप से पढा ़कर रोका जाना बेहद जरूरी है। अब समय आ गया है कि केन्द्रीय और राज्यों की सरकारें जल संरक्षण को अनिवार्य विषय बना कर प्राथमिक से लेकर उच्च स्तर तक नई पीढ़ी को पढ़वाने का कानून बनाएं।

अधिक हिंदी ब्लॉग पढ़ने के लिए, हमारे ब्लॉग अनुभाग पर जाएँ।


मनीषा कुलश्रेष्ठ