साड़ियों की अनूठी दुनिया | सुदीप्ति | A Unique World Of Sarees | Sudipti

Published by सुदीप्ति on   September 1, 2022 in   Hindi

साड़ियों की अनूठी दुनिया

साड़ी हमारे देश में एक पहनवा मात्र नहीं सामुदायिक जीवन के एक वृहतर घेरे के केंद्र में है। इसके द्वारा हम अपने देश के हथकरघे की समृद्ध परंपरा से न सिर्फ परिचित होते हैं। देश में सूत कातने-रंगने से लेकर कपडा बुनने वाले कारीगरों के जाने कितने प्रकार हैं। जब आप साड़ियों की किस्मों और उनकी बुनाई पर ध्यान देंगे तो भारतीय बुनकरों के महान सांस्कृतिक विरासत पर न सिर्फ गर्व होगा बल्कि उसके संरक्षण और संवर्धन में भी योगदान देंगे। चलिए आज हम अपने देश की कुछ साड़ियों के बारे में जानते हैं जो बुनाई की कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

१) गुजरात : राजसी पटोला साड़ी और आम सी ललक-पटोला वह भी पाटन की, न मिले तो राजकोट की ही सही। डबल इक्कत में बुनी सिल्क की पाटन-पटोला सपनीली लगती है। इस बुनाई को रेशमी धागों के उत्कृष्ट साल्वी बुनकर १२ वीं सदी में अपने साथ महाराष्ट्र से गुजरात ले आए। चालुक्यों की तत्कालीन राजधानी पाटन के नाम पर इसे जाना गया और सोलंकी राजवंश के साथ इसका गहरा नाता रहा। हालांकि गुजरात की साड़ियों की जब बात कर रहे हैं तो हम घाटचोला और गुजराती बांधनी को नहीं भूल सकते है। कच्छ के इलाके की प्राचीनतम ब्लॉक की तकनीकी अजरख का आज दुनिया भर में जो रुतबा है उसको क्या नजरंदाज किया जा सकता है?

२) महाराष्ट्र : परंपरा, पहचान और विरासत का एक नाम: पैठनी – इन दिनों बनारसी और कांजीवरम को पछाड़ शादी-ब्याह में दिखने वाली खास साड़ी है महाराष्ट्र की पैठनी। फ्लोरेसेन्ट रंगों का क्या ही अद्भुत संयोजन होता है इसकी बुनाई में। औरंगाबाद के नजदीक पैठन से इसने इतिहास और नाम दोनों लिया है। उच्च कोटि के सिल्क के साथ सुनहरे या चांदी के रंग के जरी धागे के साथ जो बॉर्डर और आंचल बनता है वह देखते ही रह जाओ।

३) राजस्थान: कोटा डोरिया, बांधनी, लहरिया और ब्लॉक प्रिंट की अनूठी दुनिया – राजस्थान में मिलने वाली साड़ियों की खूबी है कि वे वहां की गर्मी से निबटने के लिए तैयार रहती हैं। हजार झरोखों वाली कोटा डोरिया और उन पर हुए सुंदर ब्लॉक प्रिंट की खूबसूरती तो बाद की बात है सबसे पहले है आराम। सिल्क कोटा और जरी पल्ला भी नाजुकी और अदा के साथ आपको रॉयल बनाने में सक्षम है। जोधपुरी बांधनी उसमें भी राई बंधेज अपने चटख रंगों के साथ धीरज की कला का परिचायक है। शिफॉन और जॉर्जेट के कपड़ों में मिलने वाली लहरिया भी कई अंदाज में मिलती है। राजस्थानी देबू, सांगनेरी और बगरु के ब्लॉक प्रिंट तरह-तरह की सूती और तसर, मालाबार, कोसा सिल्क साड़ियों की आभा को कई गुना बढा ़देने वाले हैं।

४) नए राज्य तेलंगाना की सदियों पुरानी विरासत: तेलंगाना के बुनकरों की शान हैं – पोचमपल्ली, गडवाल, नारायणपेट, मंगलगिरी, गोल्लाभामा साड़ियां, जो ज्यादातर अपने गांवों के नाम से जानी जाती हैं। दक्षिणी सूती की आभा देखनी हो तो मंगलगिरी में देखिए। गडवाल साड़ी सुन यह मत समझिएगा कि यह पहाड़ों वाले गढ़वाल की है। दरअसल सिल्क की हथकरघे पर बेहतरीन बुनाई से सजी साड़ियां जो खासी सर्दी में आपको गर्माहट दे वे हैं गडवाल सिल्क और तेलगु बुनकर इसका पूरा श्रेय ले सकते हैं। फिर पोचमपल्ली! अहा!! तेलंगाना का प्राचीनतम इक्कत जो ज्यामितीय संरचनाओं पर चटख रंगों में खिल उठता है।

५) आंध्रप्रदेश: इक्कत का पुराना तेलगु गौरव और कलमकारी की नई धुन: आपने तेलिया रुमाल देखी है? आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले का एक छोटा सा गांव है – बंदरुलंका। यह गांव अपनी खूबसूरत हथकरघा साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। असाधारण आकर्षक दिखती ये साधारण सूती साड़ियां हैं जिन्हें ८० काउंट के धागों का उपयोग करके बुना जाता है। तेलिया रुमाल दरअसल कपड़े का एक चौकोर टुकडा ़है जिसमें बुनाई से पहले धागों को बांधने और रंगने की प्रक्रिया द्वारा बनाए गए पैटर्न होते हैं। रंगाई के बाद, धागों को लाल रंग का गहरा रंग देने के लिए तेल में उपचारित किया जाता है और एक तैलीय बनावट और गंध आ सके। इसके साथ ही ब्लॉक प्रिंट कलमकारी से लेकर हैंडपेंटेड कलमकारी की साड़ियां आज आंध्र की खास पहचान के साथ साड़ी प्रेमियों की चाहत भी हैं।

६) कर्नाटक का गौरव इल्कल: उत्तरी कर्नाटक की शानदार साड़ी है इल्कल। सूती और रेशमी धागों से बनने वाली यह साड़ी हथकरघे पर भी बनती है और पावरलूम पर भी। इसकी लंबी यात्रा लगभग ६०० ईस्वी से शुरू होकर आज भी जारी है। गहरे रंग की जमीन, चमके का बॉर्डर और खास डिजाईन में बुना पल्ला – जिसे लाखों और लाखों महिलाओं ने प्यार से लपेटा है।

७) तमिलनाडु: कांजीवरम से इतर भी बहुत कुछ है यहां – कांजीवरम को सब जानते हैं पर हम बात करेंगे मदुरई की सुंगुदी, कोयंबटोर के आसपास की कोरा, कराईकुडी की चेट्टीनाड, वदमनपक्कम की कांची कॉटन, मयिलादुथुराई की कोरानाडू और वीरवनल्लूर, थिरुनेलवेली की चेदिबुट्टा साड़ियों की। ज्यादातर साड़ियों में सूती, कॉटन सिल्क और सिल्क तीनों श्रेणी मिलती हैं। चेट्टीनाड की १०० और १००० बूटा साड़ियों की खूबसूरती मंदिरों के दीवारों की तरह ही है। तमिलनाडु के सिल्क पर बात करते हुए अगर हम कोयंबटोर सिल्क, कारा सिल्क, तिरुवन्नामलाई के छोटे से कस्बे अरनी या आरनी की मलबरी सिल्क में बुनी अरनी साड़ियां और रासीपुरम के जिक्र को छोड़ ही नहीं सकते।

८) केरल: कसवु या कासवु का बढ़ता सम्मोहन – केरल की पहचान बन चुकी साड़ी को कसवु साड़ी के नाम से जाना जाता है। यह वहां का पारंपरिक पहनावा है जिसे विभिन्न अवसरों और त्योहारों के दौरान पहना जाता है। कसवु मूलतः सादे सफेद या ऑफ व्हाइट मुख्य रंग की जमीन पर सुनहरी जऱी के बॉर्डर और आंचल के साथ बनी साड़ी है जिसकी दैवीय सुंदरता, सौम्यता और आकर्षण का कोई जोड़ नहीं। मलयाली समुदाय की सांस्कृतिक पोशाक के रूप में ओणम हो या विवाह हर ओर यही साड़ी।

९) उड़ीसा: नुआपटना के बांधा से लेकर मिरगन बुनकरों की कोटपड़ तक – हथकरघे के वैविध्य से तमिलनाडु को कोई टक्कर दे सकता है तो वह सिर्फ उड़ीसा। मलबरी से लेकर तसर जैसे रेशमी धागों के ताने-बाने से बने इक्कत की कला को उड़ीसा के गांव-गांव में बसे बुनकर आकाश तक ले गए हैं। नुआपटना की खांडुआ, सम्बलपुर की डबल इक्कत, गंजम के छोटे से गांव बोमकाई की इसी नाम की खूबसूरत बॉर्डर वाली इक्कत नहीं है तो फिर कुछ कम है। पासा के खेल के ऊपर बने डिजायन की पासापल्ली और नाइन ब्लॉक्स की ‘नवकोठी’ की आजकल धूम है। ब्रह्मपुरी, ताराबली, नीलचक्र आदि सिल्क की खास बॉर्डर पल्लू में बनी साड़ियां हैं। उड़ीसा में कम मूल्य की सूती खूब मिलती है। इन साड़ियों को हम सुता लुगा, डोंगरिया, करगिल, कटकी, हबसपुरी, काठीफेरा, पिटाला आदि नामों से जानते हैं। इनको बुनने में जितनी मेहनत लगती है उसे अनुसार इनका दाम होता है, पर उड़ीसा की जिस खास साड़ी की बात मैं करना चाहती हूं वह है कोटपड़। कोटपड़ साड़ी समृद्ध आदिवासी संस्कृति का ध्वज है। यह उड़ीसा की पहली कुछ चीजों में से एक है जिसे वर्ष २००५ में जीआई टैग मिला था।

१०) बंगाल: छाया है जामदानी का जादू सदियों से – ढाकाई मसलिन जामदानी- जी! वही साड़ी जो अंगूठी के बीच से निकल जाती थी। सूती हो या मसलिन सिल्क जामदानी-पारदर्शी जमीन और धागों की तरीके की बुनाई और डिजाईन में अपने-आप में  अनोखी है। अगर आपके पास पेस्टल रंग की या सफेद-काली को जामदानी नहीं तो आप साड़ी प्रेमी नहीं। हालांकि बंगाल के पास बजट में आने वाली बहुत साड़ियां हैं- तांत, टंगाईल, बेगमपुरी। बंगाल की लालपाढ़ सूती या सिल्क भी अपने इतिहास और परंपरा को बनाए हुए है।

११) असम: सुआलकुची के रेशमी करघे और मुगा सिल्क का नशा : असम में सुआलकुची रेशम-बुनाई का मुख्य केंद्र है। सुआलू वह पेड़ है जिसके पत्ते मुगा रेशमकीट को खिलाए जाते हैं; और कुची का अर्थ है क्लस्टर। सुआलकुची विशेषज्ञ असमिया बुनकरों का घर है। रेशम की तीन प्रमुख किस्में हैं – सुनहरा मुगा, सफेद पैट और गर्म एरी जो हथकरघा उद्योगों पर राज करते हैं। यहां की साड़ियां पारंपरिक बुनाई का खजाना है जिस साड़ी प्रेमी स्त्रियां गर्व करती हैं। असमिया महिलाओं की पारंपरिक पोशाक मेखला चादर है। एक तरह से असम में साड़ी के दो पीस होते हैं जिन्हें ‘मेखला चादर’ कहा जाता है।

१२)  बिहार: भागलपुरी सिल्क और मधुबनी पेंटिंग की जुगुलजोड़ी – सब जगहों की तरह भागलपुरी सिल्क का भी नाम जगह पर ही पडा ़है। सिल्क में रॉ, मटका और तसर भागलपुर की पहचान हैं। भागलपुरी तसर और मटका सिल्क बिना किसी डाई के अपने मूल तसर रंग में सबसे ज्यादा खिलती है। तसर के इस स्वाभाविक रंग पर मधुबनी शैली की पेंटिंग खूब जमती है।

१३) छतीसगढ़: कोसा का बोसा या घीचा की समृद्धि – छतीसगढ़ तसर / कोसा सिल्क के उत्पादन का एक गढ़ है। घीचा या खेवा वे धागे हैं जो असमिया एरी रेशम या तसर के अवशेष होते हैं। घीचा मूलतः वह रेशम होता है जो तसर बनाने की प्रक्रिया में छांट दिया जाता। इन दिनों घीचा के धागे को शुद्ध रेशम की साड़ियों या कटिया तसर रेशम या शुद्ध सूती साड़ियों के साथ मिला कर साड़ियों के पल्लू, बॉर्डर आदि में भी इसका इस्तेमाल होता है। इन मूल साड़ियों के साथ बस्तर, छिंदवाडा ़आदि जगहों की बुनाई से लेकर छापे यानी ब्लॉक प्रिंटिंग का गढ़ है यह राज्य। मुड़िया प्रिंट इन दिनों कितना चर्चित है उसका कहना ही क्या! गोंड कला के ब्लॉक और मलबरी के साथ स्थानीय सौसर सिल्क पर काम छिंदवाडा ़में हो रहा है।

१४) मध्यप्रदेश: साड़ी बाजार पर चंदेरी और माहेश्वरी का कब्जा – चंदेरी और माहेश्वरी भी स्थान आधारित साड़ियों के नाम है। चंदेरी मध्यप्रदेश का एक छोटा शहर – अपने पारंपरिक बुनाई के लिए ऐतिहासिक रूप से प्रसिद्ध है। चंदेरी के कपड़े पारंपरिक सूती धागे में रेशम और सुनहरी जरी में बुनकर तैयार किए जाते हैं।

महारानी अहल्याबाई होल्कर की देन है – माहेश्वरी साड़ी। महेश्वर नामक छोटे कस्बे में हल्के रंगों में एक शुद्ध सूती साड़ी के रूप में शुरू हुई माहेश्वरी साड़ी, जिसके बॉर्डर के साथ और पल्लू में परस्पर विपरीत रंगीन धारियां थीं। माहेश्वरी सूती, सिल्क और कभी-कभी सिल्क के साथ सूती धागे मिलकर बनाई जाती है। दोनों साड़ियां बेहद हल्के वजन की होती हैं। वैसे मध्यप्रदेश की सूती बाघ प्रिंट साड़ियों को भी हम भूल नहीं सकते।

१५) फिर भी दिल है बनारसी: ‘मेरो मन अनत कहां सुख पावै। जैसे उड़ि जहाज की पंछी, फिरि जहाज पै आवै॥’

सच पूछिए तो सब के बाद भी अगर बनारसी नहीं तो कुछ नहीं! बनारसी साड़ियां परंपरा, संस्कृति, इतिहास, कला, जीवन-शैली के साथ कबीर का निर्गुण भी है। बनारसी बुनाई के ताने-बाने में निराकार ब्रह्म है। वह नित-नूतन और चिर-पुरातन है। आमतौर पर लोग नए डिजाईन की तलाश में रहते वहीं बनारसी में परंपरा से चली या रही बूटियों और पैटर्न का महत्व बढ़ जाता है। आप पवित्र बनारसी ढूंढ रही हों और उसकी जरी में पैठनी के फ्लोरेसेन्ट टिंट्स देख लिया तो घबराएं मत। नया चाहिए, अच्छा लगा तो ठीक वरना कोई तो पक्का फकीर बार-बार दुहराए उस काम को पूर्णता की हद तक दुहरा रहा होगा तो जिसकी आपको तलाश है। बनारसी रेशम पर जान दीजिए, टिशू को अपनाइए, ऑरगेंजा को सराहिए, तनछुई को तो बस स्पर्श कीजिए और बनारसी शिफॉन को मत छोड़िएगा।

वैसे चारुता में उत्तर प्रदेश की चिकनकारी की साड़ियों का भी कोई जोड़ नहीं। पेस्टल रंगों चिकन की साड़ियां गर्मियों की किसी शाम के लालित्य को बढा सकती हैं।

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सुदीप्ति