चिंता ज्वाल सरीर बन, दावा लगि लगि जाय। प्रकट धुआं नहिं देखिए, उर अंतर धुंधुवाय॥ उर अंतर धुंधुवाय, जरै जस कांच की भट्ठी। रक्त मांस जरि जाय, रहै पांजरि की ठट्ठी॥ कह ‘गिरिधर कविराय, सुनो रे मेरे मिंता। ते नर कैसे जिए, जाहि तन व्यापे चिंता॥ लोक भाषा के गिरधर कविराय की छह पंक्तियों की